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Friday, 27 September 2024

यज्ञोपवीत (जनेउ) के बारे मे संपूर्ण जानकारी

                                    यज्ञोपवीत

      यज्ञ और उपवीत–इन दो शब्दों से यज्ञोपवीत शब्द बना है। वैदिक यज्ञों को करने का अधिकार यज्ञोपवीत संस्कार से प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत इस बात का सूचक है कि यह द्विजाति है, इसे वेदाध्ययन एवं वैदिक कर्म का अधिकार प्राप्त है। द्विजाति पुरुष वैदिक कर्मो में अधिकार प्राप्ति के लिये उपनयन-संस्कार द्वारा यज्ञोपवीत धारण करता है। इसीलिये यज्ञोपवीत का एक नाम ब्रह्मसूत्र अर्थात् वेद (ब्रह्म) के अधिकारका सूचक है।

    यज्ञोपवीत वेदाधिकार सूचक है। वेद का मुख्य मन्त्र है–वेदमाता गायत्री। गायत्री में २४ अक्षर हैं। यह मन्त्र चारों वेदों में है। चारों वेदों के गायत्री मन्त्रों की कुल अक्षर-संख्या ९६ हुई। इससे यज्ञोपवीत-सूत्र ९६ अंगुल का होता है। सामवेद के छान्दोग्य परिशिष्ट के अनुसार तत्त्व २५, गुण ३, तिथि १५, वार ७, नक्षत्र २७, वेद ४, काल ३, मास १२–इन सबके योग ९६ अंगुल को यज्ञोपवीत सूत्र का परिमाण रखकर उसे भुवनात्मक प्रतीक माना गया है। उपनीत होने वाले व्यक्ति को ९६ सहस्र वैदिक ऋचाओं का अधिकार प्राप्त है–यह भी यज्ञोपवीत का सूत्र ९६ अंगुल होने में प्रधान हेतु है।

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       यज्ञोपवीत में तीन सूत्र त्रिगुणित किये गये होते हैं। त्रिगुण से निर्मित जगत् में वैदिक त्रयी के आधार से ऋणत्रय (देव-ऋण, ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण) से मुक्त होना हमारा कर्तव्य है- यह त्रिगुणित तीनों सूत्र बतलाते हैं।

        इस प्रकार उपर्युक्त विधि से निर्मित यज्ञोपवीत नौ तन्तुवाला बन जाता है। इन नौ तन्तुओं में ॐकार,अग्नि,अनन्त,चन्द्र, पितृगण, प्रजा, वायु, सूर्य, सर्वदेव का निवास है। इनसे उन देवताओं के गुण आते हैं।

    यज्ञोपवीत में चार ग्रन्थि नहीं होती। उसमें अपने प्रवर के अनुसार १, २, ३ या ४ गाँठ होनी चाहिये। यह प्रवर की सूचक है। इन गाँठों से नीचे पहले ब्रह्मग्रन्थि होती है, जो सूचित करती है कि वेदाधिकार प्राप्त करने का तात्पर्य भी सर्वमय–सबमें व्याप्त परम ब्रह्म को प्राप्त करना ही है।

      शास्त्रकारों ने दाहिने कान में आदित्य, वसु, रुद्र वायु, तथा अग्नि आदि देवताओं का निवास माना है।

          आदित्या  वसवो  रुद्रा  वायुरग्निश्च धर्मराट्।

          विप्रस्य दक्षिणे कर्णे नित्यं तिष्ठन्ति देवताः॥

    इसलिये शौचादि के समय जबकि हम अपवित्र दशा में होते हैं, वेद के पवित्र अधिकार के प्रतीक यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर चढ़ा लेते हैं। 

   उस समय उसकी पवित्रता की रक्षा उस कर्ण में स्थित देवताओं द्वारा होती है–यही इसका भाव है। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज ‘श्रीजी की चरण सेवा’ को फॉलो तथा हमारा व्हाट्सएप चैनल भी ज्वॉइन करें। चैनल का लिंक हमारी फेसबुक पर देखें। मनुष्य का हृदय वाम भाग में है–यज्ञोपवीत का उद्देश्य हम हृदय से समझते– मानते हैं और मानेंगे, यह सूचित करता हुआ यज्ञोपवीत वाम कन्धे से होता हुआ, हृदय पर होकर दाहिने आता है। यज्ञोपवीत वेद का सपवित्र प्रतीक है–अत: अपवित्र दशा में उसकी पवित्रता न रखी गयी हो, वह कर्ण स्थित देवताओं को रक्षा के लिये न दिया गया हो तो अपवित्र माना जाता है, अत: बदला जाता है।

    यज्ञोपवीत धारण करके जो संध्या, गायत्री जप नहीं करता वह अनुचित करता है। परंतु जो यज्ञोपवीत धारण ही नहीं करता, उसे तो वैदिक कर्मो के करने का अधिकार ही नहीं है। वह इन्हें करता है तो अनधिकार कार्य का दोषी होता है। इसलिये द्विजाति को यज्ञोपवीत धारण करना ही चाहिये।

    गुणों का धारण तथा अवगुणों का त्याग तो सभी के लिये इष्ट है। जो द्विजाति हैं, उनके लिये भी तथा जो द्विजाति नहीं हैं उनके लिये भी।

          गुणाधान के लिये तामसी पदार्थों का त्याग करना उत्तम बात है। जहाँ तक हो सके राजस पदार्थों का भी त्याग करना चाहिये। इससे सात्त्विक गुणों की अभिवृद्धि में सहायता मिलती है।

                         - श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका

                                               'कल्याण (९४/०७)

                                              गीताप्रेस (गोरखपुर)

                 


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