धर्म ही मनुष्य का सच्चा साथी है
महाभारत के स्वर्गारोहणपर्व की कथा है कि पांडव जब द्रौपदी सहित सशरीर स्वर्ग जाने लगे, उस समय उनके साथ एक कुत्ता भी चल रहा था।
चलते-चलते सबसे पहले हिमालय की बर्फ में द्रौपदी गलकर गिरने लगी, तब भीम ने युधिष्ठिर से कहा कि हम लोगों की चिरसंगिनी द्रौपदी गिर रही है।
धर्मराज युधिष्ठिर ने पीछे देखे बिना ही कहा—’गिर जाने दो, उसका व्यवहार पक्षपातपूर्ण था; क्योंकि वह हम सबसे अधिक अर्जुन से प्रेम करती थी।’ ऐसा कहकर वे आगे चलते गए, पीछे देखा भी नहीं; क्योंकि धर्म के मार्ग पर चलने वाले को कभी पीछे नहीं देखना चाहिए।
थोड़ी दूर जाने पर सहदेव लड़खड़ाने लगे। यह देखकर भीम ने कहा–’दादा! प्रिय भाई सहदेव गिर रहे हैं। इन्होंने तो सदैव ही अभिमानरहित होकर हमारी सेवा की है; फिर ये क्यों गिर रहे हैं?’
युधिष्ठिर ने कहा–’भाई सहदेव को अपनी विद्वता (ज्ञान) का अभिमान था।’ ऐसा कहकर युधिष्ठिर बिना पीछे देखे शेष भाईयों के साथ आगे बढ़ते रहे।
इतने में नकुल को लड़खड़ाते देखकर भीम ने कहा–’भाई नकुल भी साथ छोड़ना चाहते हैं।’
युधिष्ठिर ने कहा–’उसे अपनी सुन्दरता का अभिमान था, इसलिए उसका पतन हुआ।’ ऐसा कहकर बिना पीछे देखे युधिष्ठिर आगे बढ़ने लगे।
तभी अर्जुन को गिरता देखकर भीम ने कहा–’दादा! श्वेत घोड़ों के रथ पर गाण्डीव धनुष धारण करके घूमने वाला अर्जुन गिर रहा है।’
युधिष्ठिर ने बिना पीछे देखे जवाब दिया–’गिर जाने दो, उसे अपनी शूरवीरता का बहुत अभिमान था।’
अंत में महाबली भीम भी लड़खड़ाकर गिरने लगे। उन्होंने युधिष्ठिर को पुकार कर कहा–’दादा! मैं भी गिरा जाता हूँ, मेरी रक्षा करो।’
युधिष्ठिर ने कहा–’तू तो बड़ा पेटू था और तुझे अपने बल का बड़ा घमण्ड था कि संसार में तेरे समान कोई बलशाली नहीं है; अत: तेरा पतन भी निश्चित है।’ इस प्रकार युधिष्ठिर बिना पीछे देखे आगे बढ़ते गए।
तभी युधिष्ठिर ने देखा कि जो कुत्ता शुरु में उन्हें मिला था, वह साथ आ रहा है। उसी समय युधिष्ठिर को इन्द्रदेव के दर्शन हुए।
इन्द्र ने कहा कि रथ पर सवार होकर सदेह इन्द्रलोक को चलिए। युधिष्ठिर ने कहा कि ‘ये कुत्ता हमारे साथ आया है; पहले इसे रथ पर चढ़ाइए, तब मैं रथ पर चढ़ूँगा।’
इन्द्र ने कहा कि स्वर्ग में कुत्ता नहीं जा सकता।
युधिष्ठिर ने कहा–’यदि कुत्ता नहीं जा सकता तो मैं भी नहीं जाऊंगा; क्योंकि यह हमारी शरण में आया है, अत: इसे छोड़कर मैं स्वर्ग में नहीं जाना चाहता।’ नियम है कि शरणागत की रक्षा न करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है—
सरनागत कहँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि।।
(मानस, सुन्दरकाण्ड, ४३)
धर्मराज युधिष्ठिर ने इन्द्र से जब यह कहा तब धर्मदेव जिन्होंने कुत्ते का रूप धारण कर रखा था, साक्षात् उपस्थित हो गए और युधिष्ठिर से कहने लगे...
’मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; तुमने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए भी धर्म का त्याग नहीं किया।’ इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए।
धर्मो रक्षति रक्षित:
अर्थात् धर्म की जो रक्षा करता है, उसकी धर्म रक्षा करता है। मृत्यु के समय क्लेश से तड़पते हुए जीव की रक्षा वे वस्तुएं नहीं कर सकतीं जिनको प्राप्त करने में वे कठिन परिश्रम करते और अनेक कष्ट सहते हैं।
अंत समय में केवल धर्म ही साथ देता है और वही साथ जाता है।
अत: जो लोक-परलोक में हमारी रक्षा करे, हमारा साथ दे, उस धर्म को ही सच्चा साथी बनाना चाहिए। इस प्रकार धर्म ही मनुष्य के लोक-परलोक का साथी है।
चलं चित्तं चलं वित्तं चले जीवन यौवने।
चलाचले हि संसारे धर्मं एको हि निश्चल:।।
अर्थात् : विद्वानों ने इस संसार (मन, धन, जीवन, यौवन) को चलायमान माना है, इस नाशवान संसार में केवल धर्म ही अचल है और मनुष्य का सच्चा साथी है।
धर्म है जीवन-पथ का लक्ष्य।
धर्म है सब सत्यों का सत्य।।
धर्म से मिटता तन-मन-ताप।
धर्म से मिल जाते प्रभु आप।।
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