भगवान् जगन्नाथ के भक्त नीलांबरदास रहते तो उत्तर प्रदेश में थे, किंतु उनका हृदय उड़ीसा के जगन्नाथ भगवान् ने चुरा लिया था।
एक दिन धन-संपत्ति, स्त्री-पुत्र सब को ठोकर मार जगन्नाथ भगवान् के दर्शन के लिए निकल पड़े। चलते-चलते गंगा तट पर पहुँचे, एक मल्लाह बीच गंगा में नौका पर बैठा मछली पकड़ रहा था।
नीलांबरदास ने उसे पुकारा और बोले- भाई! मुझे गंगा पार करा दो, भाड़े की चिंता न करना। मल्लाह लालची था, उसने सोचा यात्री के पास काफी धन है, वह नौका किनारे ले आया।
नीलांबरदास भगवान् जगन्नाथ के नाम का स्मरण करते हुए नौका में बैठ गए। गंगा की बहती धारा में नौका चल पड़ी।
सूर्यदेव अस्त हो चुके थे चारों ओर अंधकार फैलता जा रहा था। मल्लाह नौका को दूसरे तट पर ले जाने के स्थान पर गंगा की उफनती हुई धारा में बहाता ले जा रहा था।
उसने सोचा कि उफनती गंगा के बीच में नीलांबरदास को मारकर फेंक दिया जाए और उनका धन लूट लिया जाए।
जब उसने नीलांबरदास की बात नहीं सुनी, तो उन्हें मल्लाह पर संदेह हुआ और बोले- “भाई! क्या तू मुझे मारना चाहता है ? अच्छा, मैं भी देखता हूँ कि जगन्नाथपुरी के यात्री को कोई कैसे मार सकता है ?
मल्लाह क्रूर अट्टहास करते हुए बोला- मेरी नियत समझने में अब तुम्हें अधिक देर नहीं लगेगी। मैं तुम्हें अभी एक क्षण में ही जगन्नाथ धाम पहुँचाए देता हूँ। तुम्हें जिस-जिसको भी याद करना है, उसे याद कर लो।
नीलांबरदास घबराकर नेत्र मूंदकर मन-ही-मन भगवान् जगन्नाथ को पुकारने लगे : हे भगवन्! एक बार रथ पर आरूढ़ आप जगन्नाथ भगवान् के भाई बलभद्र और बहिन सुभद्रा सहित दर्शन करनेकी अभिलाषा है, फिर चाहे प्राण भले ही चले जाएँ।
हे जगन्नाथ! कृपया इस समय मुझे इस विपत्ति से बचाइए। मल्लाह के होठों पर अभी भी कुटिल मुस्कान नाच रही थी। अचानक पहले तट से एक कड़कती हुई आवाज गूँजी।
मल्लाह और नीलांबरदास ने मुड़कर देखा कि वहाँ एक अत्यंत सुंदर राजपूत युवक धनुष-बाण धारण किए खड़ा है। उसने मल्लाह को डांटते हुए कहा- अरे ओ मल्लाह! तुझे मरने की इच्छा न हो तो नाव झटपट किनारे ले आ।
धनुष-बाणधारी राजपूत को देखकर मल्लाह थर-थर काँपने लगा। उनकी कड़कती आवाज सुनकर उसकी तो जैसे नानी मर गई। किंतु फिर भी वह दुष्ट गंगा की धारा में नौका बहाता रहा।
जब राजपूत द्वारा दूसरी बार चेतावनी देने पर भी उसने उन्हें अनसुना करने की कोशिश की, तो राजपूत ने अपने धनुष पर एक बाण चढ़ाकर छोड़ा, सर्र से बाण आकर नौका में घुस गया।
किनारे से राजपूत का कड़कता स्वर गूँजा- अभी तो नौका पर बाण मारा है, यदि अब भी तट पर नौका नहीं लाया, तो अबकी बार तेरा सिर उड़ा दूँगा।
मल्लाह का चेहरा भय से फीका पड़ गया और उसने नौका तट की ओर वापस मोड़ ली। तट पर पहुँचने पर राजपूत ने मल्लाह को डांटते हुए बोले- इन ब्राह्मण को मेरे सामने ही तुरंत उस पार उतार।
यदि इन्हें कहीं ओर ले गया तो मेरे बाण का ध्यान रखना। मल्लाह ने राजपूत से अपने अपराध की क्षमा माँगी। फिर उस राजपूत युवक ने नीलांबरदास से बड़े प्रेम से कहा- मैंने यह वेश लुटेरों, हत्यारों से पीड़ित यात्रियों की रक्षाके लिए ही धारण किया है।
नीलांबरदास उसके रूप को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए और उन्हें निहारते ही रह गए, वे मुख से कुछ भी बोल न सके। मल्लाह ने नीलांबरदास को तुरंत दूसरे तट पर उतार दिया।
राजपूत के रूप सौंदर्य को देखकर मल्लाह का हृदय परिवर्तन हो चुका था और पश्चाताप करते हुए वह नीलांबरदासके पैरों में गिर पड़ा।
नीलांबरदास ने उसे आशीर्वाद दिया और नजर उठाकर पहले तट की ओर देखा। वह सुंदर और वीर राजपूत अभी भी वहाँ खड़ा था और नीलांबरदास को देखकर मंद-मंद मुस्करा रहा था।
अचानक वह राजपूत अंतर्धान हो गया, नीलांबरदास को विश्वास हो गया कि अवश्य ही ये मेरे जगन्नाथ भगवान् थे और मेरी रक्षा के लिए ही इस वेश में आए थे।
जगन्नाथ भगवान् की इस कृपा को स्मरण कर वे भाव-विभोर और रोमांचित हो उठे। रास्ते भर प्रेम के आँसू बहाते हुए वे जगन्नाथ पुरी पहुँचे।
वहाँ जगन्नाथ रथयात्रामें दूर-दूर से आए हुए लाखों भक्तों की भीड़ “जय जगन्नाथ” “जय बलभद्र” ” जय सुभद्रा” के जयघोष कर रही थी।
नीलांबरदास ने रथारूढ़ जगन्नाथ भगवान् के भाई बलभद्र और बहिन सुभद्रा सहित दर्शन किए और उन्हें नेत्र भर निहारा। फिर वे बेसुध होकर भगवान् के रथ के सामने साष्टांग प्रणाम करते हुए गिर पड़े।
भक्तों ने दौड़कर उन्हें उठाना चाहा, किंतु तब तक तो नीलांबरदास अपने इष्ट जगन्नाथ भगवान् से एक हो चुके थे। भक्तों ने जगन्नाथ भगवान् का कीर्तन करते हुए उनकी पार्थिव देह का समुद्र में विसर्जन किया।
:- आज भी जगन्नाथ धाम में भक्त नीलांबरदास द्वारा भगवान् के दर्शन करते-करते प्राण त्यागनेकी गाथा गाई जाती है।
!! जय हो जय हो अनाथोंके नाथ प्रभु जगन्नाथ !!
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