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Sunday, 5 October 2025

સોનું હંમેશા ઇન્વેસ્ટમેન્ટ માટે સુરક્ષિત અને ભરોસાપાત્ર ? Gold Price- Gold Investment

 Gold Price: સોનું હંમેશા ઇન્વેસ્ટમેન્ટ માટે સુરક્ષિત અને ભરોસાપાત્ર ઓપ્શન માનવામાં આવે છે. તેનું આકર્ષણ માત્ર તેના ભાવમાં વધારા સુધી મર્યાદિત નથી, પરંતુ આર્થિક અનિશ્ચિતતાઓના સમયે આ એક ભરોસાપાત્ર સાથી પણ હોય છે. તેવામાં જો તમે આજે(ઓક્ટોબર 2025) 1 કિલો સોનુંં ખરીદો છો, તો તેના 2050 સુધી તેના ભાવ કેટલા હોય શકે છે? અને રોકાણથી કેટલો લાભ કે નુકસાન થઈ શકે છે? ત્યારે ચાલો, હાલના રેટ અને ઐતિહાસિક ટ્રેન્ડના આધારે તેના ભાવોનું આંકલન કરીએ.

હાલમાં સોનાના ભાવ

ઓક્ટોબર 2025માં ભારતમાં 24 કેરેટ સોનાના ભાવ લગભગ 11,942 રૂપિયા પ્રતિ ગ્રામની આસપાસ છે. તેનો મતલબ છે કે 1 કિલો એટલે કે 1000 ગ્રામ સોનાના ભાવ લગભગ 1,19,42,000 રૂપિયા સુધી હોય શકે છે. આ ભાવ અલગ અલગ શહેરો અને બજારોમાં થોડા અલગ હોઈ શકે છે, પરંતુ અંદાજિત ભાવ આ જ જોવા મળ્યો છે.

10 ગ્રામ સોનાનો ભાવ 2025માં શું હશે?

જો તમારી પાસે હાલ 10 ગ્રામ 24 કેરેટ સોનું છે, જેનો ઓક્ટોબર 2025માં અંદાજિત ભાવ રૂપિયા 11,942 પ્રતિ ગ્રામ પ્રમાણે આશરે રૂપિયા 1,19,420 થાય છે, તો 2050 સુધીમાં તેના ભાવમાં મોટો વધારો થઈ શકે છે. જો સોનાના ભાવમાં દર વર્ષે સરેરાશ 8ટકાનો વધારો થાય, તો 2050માં આ 10 ગ્રામ સોનાની કિંમત આશરે રૂપિયા 30 થી રૂપિયા 35 લાખ સુધી પહોંચી શકે છે. અને જો વાર્ષિક વધારો 10ટકાના દરે થાય, તો આ કિંમત રૂપિયા 45 થી રૂપિયા 50 લાખ સુધી જઈ શકે છે. એટલે કે, લાંબા ગાળે સોનામાં કરેલું નાનું રોકાણ પણ મોટી સંપત્તિમાં ફેરવાઈ શકે છે.

નફા-નુકસાનનું આકલન

ગત કેટલાક વર્ષોમાં સોનાના ભાવમાં સતત વધારો જોવા મળ્યો છે, જે ભવિષ્યમાં પણ આવો જ રહેવાની શક્યતા છે. સોનાને રોકાણની દ્રષ્ટીએ સુરક્ષિત વિકલ્પ માનવામાં આવે છે, ખાસ કરીને આર્થિક અનિશ્ચિતતાઓના સમયમાં સુરક્ષિત હોય છે. સોનાના ભાવ સામાન્ય રીતે ફુગાવાની સાથે વધે છે, જેનાથી આ ફુગાવાથી સુરક્ષા આપે છે.

શું થઈ શકે છે નુકસાન?

એક કિલો સોનાને સુરક્ષિત રાખવા માટે યોગ્ય સ્ટોરેજ અને સુરક્ષાની જરૂર હોય છે, જે તેના માટે એક્સ્ટ્રા ખર્ચનું કારણ બની શકે છે. સોનાના તાત્કાલિક રોકડમાં પરિવર્તિત કરવું ક્યારેક મુશ્કેલ બની શકે છે, ખાસ કરીને મોટા પ્રમાણમાં. તેવામાં તેના ફાયદાની સાથે કેટલાક નુકસાન પણ થઈ શકે છે.

(આ આંકડા માત્ર ઐતિહાસિક ટ્રેન્ડ અને સરેરાશ વૃદ્ધિ પર આધારિત અંદાજ છે. બજારની સ્થિતિ, વૈશ્વિક અર્થવ્યવસ્થા, રોકાણકારોનો વલણ અને રાજકીય સ્થિરતા જેવી પરિસ્થિતિઓ આ ભાવવૃદ્ધિને પ્રભાવિત કરી શકે છે.)



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शरद पूर्णिमा 2025: महत्व, कथा, पूजा विधि और वैज्ञानिक रहस्य

 शरद पूर्णिमा 2025 भूमिका

भारत त्योहारों का देश है — यहाँ हर पर्व किसी न किसी धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है।

ऐसा ही एक पावन पर्व है शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।

यह दिन वर्ष की सबसे सुंदर पूर्णिमा मानी जाती है, जब चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ पूरे तेज से धरती पर चमकता है।

 शरद पूर्णिमा कब मनाई जाती है?

शरद पूर्णिमा हर वर्ष आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है।

साल 2025 में शरद पूर्णिमा 6 अक्टूबर (सोमवार) के दिन पड़ रही है।

यह तिथि अत्यंत शुभ मानी जाती है क्योंकि इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है, और उसकी किरणें औषधीय प्रभाव लेकर आती हैं।

शरद पूर्णिमा का धार्मिक महत्व

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, शरद पूर्णिमा की रात भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला की थी।

इस कारण इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है।

कहा जाता है कि उस दिव्य रात में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने चंद्रमा की रोशनी में भक्ति और प्रेम का अद्भुत संगम रचा था।

इसी दिन माँ लक्ष्मी भी ब्रह्मांड में भ्रमण करती हैं और यह देखने आती हैं कि कौन जाग रहा है और उनकी उपासना कर रहा है।


इसलिए इस पूर्णिमा को कोजागरी पूर्णिमा कहा जाता है — जिसका अर्थ है “कौन जाग रहा है?”

जो व्यक्ति इस रात जागकर माँ लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा करता है, उसे वर्षभर सुख, शांति, समृद्धि और धन की प्राप्ति होती है।

शरद पूर्णिमा और खीर का महत्व

इस दिन दूध और खीर का विशेष महत्व होता है।

रात को खीर बनाकर खुले आसमान में चाँद की रोशनी में रखी जाती है।

कहते हैं कि इस रात की चंद्र किरणों में विशेष औषधीय गुण होते हैं, जो शरीर को ठंडक और मन को शांति देते हैं।

सुबह उस खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।

इसे खाने से शरीर में नई ऊर्जा और रोगों से सुरक्षा मानी जाती है।

 शरद पूर्णिमा की पूजा विधि

यदि आप शरद पूर्णिमा की पूजा करना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए सरल चरणों का पालन करें:

1. सबसे पहले स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।

2.  घर के उत्तर या पूर्व दिशा में भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी की मूर्ति स्थापित करें।

3.  धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य अर्पित करें।

4.  खीर बनाकर चाँद की रोशनी में रखें।

5.  रात 12 बजे के बाद चंद्रमा को अर्घ्य दें।

6.  अगले दिन उस खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।

 शरद पूर्णिमा की पौराणिक कथा

पौराणिक मान्यता के अनुसार, एक बार राजा चन्द्रसेन की रानी लक्ष्मी की आराधना में लीन थीं।

रात्रि में माँ लक्ष्मी प्रकट होकर बोलीं — “हे रानी, आज मैं धरती पर यह देखने आई हूँ कि कौन जाग रहा है और मेरी पूजा कर रहा है।”

रानी ने कहा — “माँ, मैं आपकी आराधना कर रही हूँ।”

माँ लक्ष्मी प्रसन्न होकर बोलीं — “जो भी इस रात जागकर मेरी पूजा करेगा, मैं उसे धन, सुख और समृद्धि का वरदान दूँगी।”

तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि लोग शरद पूर्णिमा की रात जागरण कर माँ लक्ष्मी की आराधना करते हैं। 

वैज्ञानिक दृष्टि से शरद पूर्णिमा का महत्व

विज्ञान के अनुसार, शरद ऋतु की यह पूर्णिमा ऐसी होती है जब वातावरण में नमी और चाँदनी का संयोजन शरीर के लिए उपयोगी माना जाता है।

इस रात चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है और उसकी रोशनी में यूवी किरणों की मात्रा कम होती है।

इसलिए चाँदनी में रखे गए दूध या खीर में कैल्शियम और अन्य पोषक तत्वों की वृद्धि होती है।

यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता हैl

 शरद पूर्णिमा और आध्यात्मिक संदेश

शरद पूर्णिमा हमें यह सिखाती है कि जीवन में पूर्णता तभी आती है जब हम भक्ति, प्रेम और संयम को अपनाते हैं।

यह रात हमें याद दिलाती है कि प्रकृति, चंद्रमा और मनुष्य के बीच एक गहरा आध्यात्मिक संबंध है।

इस दिन की उजली चाँदनी की तरह हमें भी अपने मन को शुद्ध, शांत और उज्जवल बनाना चाहिए।

निष्कर्ष

शरद पूर्णिमा सिर्फ एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और वैज्ञानिक समन्वय का प्रतीक है।

यह रात प्रेम, भक्ति और समृद्धि का संदेश देती है।

आइए इस वर्ष भी हम सब मिलकर शरद पूर्णिमा की चाँदनी में माँ लक्ष्मी और श्रीकृष्ण की आराधना करें और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को सुखमय बनाएं।


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Friday, 19 September 2025

सुंदरी भवानी माता मंदिर सुंदरी भवानी गांव हलवद तालुका सुरेन्द्रनगर जिला गुजरात

सौराष्ट्र के इस मंदिर में देवी मां समुद्र से प्रकट हुई हैं, यहां जरूर जाएं

 सौराष्ट्र के झालावाड़ के पंचाल क्षेत्र में पांडवों के निवास के ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। मूर्तियाँ अत्यंत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मिली हैं, जो कलात्मक प्रतीत होती हैं। वर्षों से जीर्ण-शीर्ण हो रही ये मूर्तियाँ पांडवों, द्रौपदी और श्रीकृष्ण की हैं। एक पंक्ति में कुल सात मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। इन मूर्तियों के साथ, समुद्र से प्रकट हुई देवी सुंदरी भवानी भी मिली हैं। आइए, अलौकिक मूर्ति और सुंदरी भवानी के साथ मंदिर के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।

 महाभारत काल से पूर्व का यह मंदिर

 कण्व ऋषि से लेकर महाभारत काल तक पांडवों की कथा से जुड़ा है! यहाँ ब्रह्मशिला और धर्मशिला के रूप में कई पत्थरों की भी पूजा की जाती है! प्राचीन काल में, यह भूमि, जो महान ऋषियों और मुनियों की योगभूमि होने के साथ-साथ अवतारी युगपुरुष की पावन पद-भूमि और धर्म एवं आध्यात्म के अमूल्य वैभव से युक्त थी, सुंदरी गाँव के निकट समुद्र हुआ करता था और इसलिए यह नौवहन का प्रमुख केंद्र था। पास ही घना जंगल था! *सतयुग में कण्व मुनि यहाँ तपस्या करते थे, इसलिए इस स्थान की रक्षा के लिए कण्व मुनि ने समुद्र की आराधना की, और माँ भवानी (माँ समुद्र) प्रसन्न होकर समुद्र से निकलकर अपने वाहन सिंह पर सवार होकर यहाँ आईंl

 सुंदरी भवानी माताजी कई जातियों की कुल देवी हैं।

 एक कथा के अनुसार ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला का पालन-पोषण इसी कण्वाश्रम में हुआ था और इसी स्थान पर राजा दुष्यंत और शकुंतला के मिलन से महानायक भरत, जिनके नाम पर हमारे देश को भारत वर्ष कहा जाता है, का जन्म हुआ था। आज भी इस कथा की याद के रूप में पास में ही श्री कण्वेश्वर महादेव का एक छोटा सा मंदिर स्थित है। सुंदरी भवानी माताजी कई जातियों की कुल देवी हैं, लेकिन विक्रम संवत 1087 में माता समुद्री के मंदिर का जीर्णोद्धार दशा सोरठिया वणिक अमरचंद माधवजी वैद्य ने करवाया था। 1930 में मंदिर का प्रबंधन श्री शंकर भूमानंद स्वामी ने किया, उस समय महाराजा घनश्याम सिंह ने 1930 और 1938 में 1008 रुपये में 15122 गज जमीन दी थी।

 श्री सुंदरी भवानी माताजी मंदिर के अंदर विशाल कलात्मक संगमरमर की मूर्तियाँ हैं। सुंदर नक्काशी से सुसज्जित यह मूर्ति अत्यंत मनोरम लगती है। उनके सिर पर लाल रंग की चुंदरी, चाँदी का मुकुट, ऊपरी भाग पर चाँदी का छत्र, हाथ में तलवार, गले में हार और नाक में नथनी है। मंदिर के बगल में जगतीत आश्रम स्थित है। प्रतिदिन अनगिनत श्रद्धालु इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं, इसलिए जगतीत आश्रम मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करता है। आश्रम के सामने एक बड़ा बगीचा है।

 यह स्थान पर्यटन की दृष्टि से उत्कृष्ट है।

सुंदरी भवानी माताजी मंदिर से थोड़ी दूरी पर द्रौपदी की कलात्मक मूर्ति है, जहाँ उनका विवाह हुआ था। अतः, यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ, शिल्प और अन्य कलाकृतियाँ इस बात के प्रमाण हैं कि पांडवों-द्रौपदी-श्रीकृष्ण का मिलन पंचाल की पावन भूमि पर ही हुआ होगा। पर्यटन की दृष्टि से, श्री सुंदरी भवानी माताजी मंदिर घूमने के लिए एक उत्कृष्ट स्थान है। आंतरिक क्षेत्र में स्थित मंदिर तक पहुँचने के लिए सुरेंद्रनगर-मोरबी से जाया जा सकता है।








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Tuesday, 16 September 2025

વિશ્વ પ્રસિધ્ધ મુંબઇનો હલવો જામખંભાળિયાવાળાની દેન છે જાણો વધુ માહિતી (Bombay Halwo)

વર્ષો સુધી મુંબઈથી કોઇપણ ‘દેશ’માં આવે એટલે મુંબઇનો હલવો તો લાવે જ . આપણે સૌ એ પાતળા પડ વાળો એ મુંબઈ આઇસ હલવો હોંશે હોંશે ખાધો છે. પણ આ હલવો આપણા એક ગુજરાતી - હાલારીની શોધ છે , એ જાણો છો ?

વર્ષો પહેલાં ગુજરાતના જામખંભાલિયા ગામના કર્મકાંડી બ્રાહ્મણ જીવા જોશીએ પુત્ર માવજીને કિસ્મત અજમાવવા બીજે ક્યાંક જવાનું કહ્યું.  માવજીને તે દિવસોમાં હોડી દ્વારા દ્વારકા આવતા લોકો પાસેથી બોમ્બે વિશે ખબર પડી.

વર્ષ ૧૭૮૭ હતું. ખંભાળીયાથી સાત-આઠ ગરીબ યુવાનો દોઢ મહિનો ચાલીને મુંબઈના માહિમ પહોંચ્યા. માવજી સવારે અને સાંજે રસોઈ બનાવવાનું અને લોકોને ભોજન પહોંચાડવાનું કામ કરતા અને બપોરે નવરાશના સમયમાં ઘરે ઘરે જઈને બુંદી, લાડુ અને મોહનથાલ વેચતા.


માવજીનો પુત્ર ગિરધર તેમને મદદ કરતો. આ સમય દરમિયાન, ગિરધર તુર્કીના એક મુસાફરને મળ્યો જેણે તેને લોકમ નામની મીઠાઈ ઓફર કરી. આનાથી પ્રેરાઈને, ગિરધરએ માહિમ હલવાની શોધ કરી. એવું કહેવાય છે કે તે લોકમથી એટલા પ્રભાવિત થયા કે તેમણે દૂધમાંથી બનેલી પાતળી પડવાળી મીઠાઈ તૈયાર કરવા લગભગ વીસ વર્ષ સુધી પ્રયોગો કર્યા. 

માહિમ માછીમારોની વસાહત હતી. એક દિવસ એક માછીમાર મહિલાએ આ મીઠાઈનો સ્વાદ ચાખ્યો અને કહ્યું, 'આ તો હલવા કરતાં પણ સારી છે'. અહીં, હલવાનો અર્થ મીઠો નથી. વાસ્તવમાં, હલવો એક પ્રકારની માછલી છે. આ રીતે, માહિમમાં બનેલી આ મીઠાઈનું નામ માહિમ હલવો રાખવામાં આવ્યું.

ગિરધર જોશી શેરી-શેરીમાં ફરીને મીઠાઈ વેચતા અને તેમના સફેદ વાળને કારણે બાળકો તેમને બુઢા ચાચા કહેતા. તેથી જ્યારે ગિરધર જોશીએ સને ૧૮૦૦ ની આસપાસ પોતાની દુકાન શરૂ કરી, ત્યારે તેનું નામ 'જોશી બુઢા કાકા માહિમ હલવાવાળા' રાખવામાં આવ્યું. આ દુકાન હજુ પણ માહિમમાં છે. મુંબઈમાં હવે તો ઘણી મીઠાઈની દુકાનો માહિમ હલવો બનાવે છે અને વેચે છે. આજે માહિમ હલવો અનાનસ, સ્ટ્રોબેરી, કેસર જેવા વિવિધ સ્વાદમાં મળે છે. 

કલ્પના કરો કે ગુજરાતથી પગપાળા આવેલા એક પરિવારે, પૈસા વિના, મુંબઈના ભોજનમાં એક અદ્ભુત મીઠાઈ ઉમેરી અને તેના ઇતિહાસનો ભાગ બની ગઈ. આજે 'જોશી બુઢાકાકા' ની બે દુકાનો છે. એક માહિમમાં અને બીજી દાદરમાં. આધુનિક દુકાનો અને ઝડપથી બદલાતી દુનિયા વચ્ચે ૨૫૦ વર્ષનો ઇતિહાસ અહીં શ્વાસ લે છે.

આ છે પ્રસિદ્ધ માહિમ હલવાની – જામખંભાળિયાથી મુંબઈ સુધીની મીઠી સફર!

#mumbai #halavo #mahimhalvo #khambhaliya #jamkhambhaliya 


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સંત શ્રી સવા ભગત નો ઇતિહાસ બ્રહ્મનિષ્ઠ સંત શ્રી સવારામ બાપા (saint shri sava bhagat)

દાસ સવા નો જન્મ સવંત ૧૯૧૭ માં પીપળી તાલુકો પાટડી જિલ્લો સુરેન્દ્રનગર ખાતે મહાસુદ પૂનમના દિવસે પ્રજાપતિ જ્ઞાતિમાં પિતા કરસનદાસ તથા માતા કાશીમાં ને ત્યાં થયો હતો.

તેમના ગુરુ ફૂલગર સ્વામી દશનામી અતિત સાધુ હતા. તેઓ ધાંગધ્રા તાલુકાના સોખડા ગામના વતની હતા.

દાસ સવો નાની ઉંમરના હતા ત્યારે તેમના પિતાનું મૃત્યુ થયેલ. અને ખુબજ ગરીબીમાં દિવસો તેમણે કાઢેલ તેમના લગ્ન યમુના બાઈ સાથે થયેલ. તેમને બે પુત્રો નાનજી તથા હરજીવન નામે થયેલ. દાસ સવા ને ભક્તિ કાળ દરમ્યાન રામદેવપીર સપના માં આવેલ તે સપના મુજબ નું રામદેવપીરનું વિશાળ મંદિર સવાભગત ની જગ્યા ગામ પીપળીમા બન્યું. જોગાનુજોગ સંત રોહીદાસ તથા રવિ સાહેબ નો જન્મ પણ મહા સુદ પૂનમે થયેલ જે યાદી થાય છે.

હવે દાસ સવાની અમૃત સમાન વાણી નું રસપાન કરતા જણાવે છે કે સલીલ વ્યક્તિ કોઈ સંત ની વાત સાંભળતા નથી. પોતે જે વાદમા માનતા હોય તેના ગાણા ગાયા કરે છે. આવી વ્યક્તિઓ ગધેડા બરાબર છે. તે શીંગડા વગરના પશુ સમાન છે. તેમાંથી કોઈ દિવસ કપટ જતું નથી અને એવા કોઈ દિવસ સંત થતા નથી.

આવા કહેવાતા લોકો તથા કથિત જ્ઞાનીઓ અભાગિયા હોય છે. આવી વ્યક્તિઓ યુગપુરુષો સંતોને સાંભળતા નથી. ભૂલથી તેના કાને સંત ના શબ્દો પડી જાય તો તેજ વાસનાની જેમ અહંકારથી તેમનું હૃદય સુકાઈ જાય છે.

દાસ સવા ની વાણી ટૂંકમાં નીચે મુજબ છે.

 સલીલ સંત ન થાય દિલનું કપટ ન જાય,

ગધેડાને ગંગામા નવરાવે રોજ નાગરવેલ ખાય,

ચંદન તુલસી એને ચડાવો ગધા ગાયનો થાય.

    એક છપામા

 પ્રેમની વાત કરતા દાસ સવો કે હેછે કે.

ગયો અંતરથી પ્રેમ ત્યાં જાતા લજવાઈ એ, ગયો

અંતરથી પ્રેમ ત્યાં ડાહ્યા નવથાઈએ, ગયો અંતરથી પ્રેમ ત્યાં ભોજન નવખાઈએ,

ગયો અંતથી પ્રેમ ત્યાં કીર્તન નવ ગાઈએ,

ગયો અંતરથી પ્રેમ તેને અમૃત નવ પાઈએ.

 દાસ સવા એ આપેલ સાખીઓ જીવનનું સુંદર સત્ય રજૂ કરે છે.

 (૧) જેને ઝાઝું કુટુંબને ઝાઝું નાણું તેને મળે નહીં હરિ ભજન નું ટાણું.

 (૨) માયા તજે મુરખા સંઘરે તેગમાર, ખાય.

ખિલાવે વાપરે તાકા બેડા પાર.

દાસ સવા એ પોતાના પૌત્ર બળદેવ ને સંબોધીને જ્ઞાનચર્ચા કરેલ તે ખરેખર  અલૌકિક છે.

તેઓ કહે છે કે આત્મદર્શી પુરુષ તો કરોડોમાં કોઈ વિરલા જ હોય છે. તેમના દર્શન પણ દુર્લભ હોય છે. પૂર્ણ ભાગ્ય તથા કમાણી શિવાય આવા પુરુષોના દર્શન પણ થતા નથી.

આત્મારૂપી હીરાની પરખ કરતા ભલામણ કરતાં દાસ સવો કહેછે કે પારખ વિના પડ્યો રહ્યો હીરો હાટ ની બહાર પલ પલ આવે પગ તેવા પણ ગામમાં બધા ગમાર,

એક ભજનમાં પરમાત્મા સિવાય જીવનું કોઈ નથી તેવા ચાબખા મારતા કહે છે કે

અલખવિના કોઈ નથી તારો હજુ સમજાય તો સમય છે સારો,

ધન મેળવવા ધાન ન ખાધું તું રાખડયો બારોબાર,

દાટયારહેછે દામ કામના આવે ચાલ્યા ગયા છે. હજારો.

દાસ સવા એ એક જ વાણીમાં સર્વે શાસ્ત્રનો સાર કહેલ જે ટૂંકમાં નીચે મુજબ છે.

એકતારો અરસ પરસ છે જોઈલો વાણી પારે, તન તુંબડું મન માલમી કોઈ જોગ જુગતમાં

જાગેરે સોહમ શબ્દ ઞણકાર થઈ રહ્યો હદ બેહદની આગે.

શરીર છોડતાં પહેલાં બે માસ અગાઉ પૌત્ર બળદેવ ને બોલાવી કહેલ કે હવે મારે મારા વતન સતલોક માં બે માસ પછી જવાનું છે. મારું આયુષ્ય વધારે નથી આ મૃત્યુ લોકમા

હું બે માસનો મહેમાનછુ. તારા આત્માનું ધ્યાન 

એવીરીતે ધરજેકે જે બોલતો છે તે હું જ છું. તે સિવાય બીજો કોઈ દેવ નથી. સર્વ કાંઈ તેના વડેજછે. તેની સત્તા મહાન છે. તારામાં જે ચેતન

છે તે જ તારૂ સ્વરૂપ છે. તેને તું જરા પણ ભૂલ તોનહીં. તારામાં જે બોલતો છે તે તારો ભગવાન છે. જેનું સ્મરણ કરજે મન શાંત થયા પછી જ એનું ધ્યાન થશે. ધ્યાન વિના મન શાંત થતું નથી. તે યાદ રાખજે ત્યારબાદ મૃત્યુના આગલા દિવસે એક પત્ર લખી બળદેવ દાસને

આપ્યો. અને કહ્યું આ પત્ર મારા દેહનો ત્યાગ કરું પછી જ ખોલીને વાંચજો.

સંત સવાભગતે સવંત ૨૦૧૭ ના વૈશાખ વદ અગિયારસને બુધવારે સવારે સવા અગિયાર વાગ્યે ૧૦૦ વર્ષ પૂર્ણ કરી દેહત્યાગ કર્યો.

ત્યારબાદ પત્ર બધા ભક્તોને વાંચી સંભળાવ્યો જેમાં તેણે જણાવેલ કે મારી પાછળ અફસોસ ન કરશો. કીર્તન કરજો, ગુગળ નો ધૂપ ચાલુ રાખજો. સ્મશાનભૂમિમાં જ ઈ મારા દેહને

અગ્નિદાહ દેજો જેથી સર્વ તત્વો પોત પોતામાં ભળી જાય મારા દેહને દાટતા નહિ આ અંગેનો પત્ર સવારામ સાહેબ ની અમીધારા પુસ્તકમાં આપવામાં આવેલ છે.

મહાન સંત શ્રી સવા ભગત ને કોટી કોટી વંદન.


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Wednesday, 3 September 2025

મનસા દેવી મંદિર, હરિદ્વાર ઉત્તરાખંડ(Mansa devi temple Haridwar uttarakhand india)

 મનસા દેવીનું પ્રસિદ્ધ મંદિર ભારતના પવિત્ર શહેર દેવભૂમિ ઉત્તરાખંડના  હરિદ્વારમાં શિવાલિક પર્વતમાળાના ઊંચા શિખર પર આવેલું છે. આ મંદિરમાં દેવીની બે દિવ્ય મૂર્તિઓ છે. એક મૂર્તિને ત્રણ મુખ અને પાંચ હાથ છે, જ્યારે બીજી મૂર્તિને આઠ હાથ છે.આ મંદિર, જેને બિલ્વ તીર્થ તરીકે પણ ઓળખવામાં આવે છે, તે હરિદ્વારમાં પંચ તીર્થ (પાંચ તીર્થસ્થાનો) પૈકીનું એક છે .


આ મંદિર શક્તિનું  સ્વરૂપ મનસા દેવીના પવિત્ર નિવાસસ્થાન તરીકે જાણીતું છે અને ભગવાન શિવના મનમાંથી ઉદ્ભવ્યું હોવાનું કહેવાય છે . મનસાને નાગ (સર્પ) વાસુકીની બહેન માનવામાં આવે છે . તે ભગવાન શિવના માનવ અવતારમાં પુત્રી પણ માનવામાં આવે છે. મનસા શબ્દનો અર્થ ઇચ્છા થાય છે અને એવું માનવામાં આવે છે કે દેવી એક નિષ્ઠાવાન ભક્તની બધી ઇચ્છાઓ પૂર્ણ કરે છે. 

અહીં ભક્તો મનસા દેવીને તેમની ઇચ્છાઓ પૂર્ણ કરવા માટે પ્રાર્થના કરે છે તેઓ મંદિરમાં સ્થિત એક વૃક્ષની ડાળીઓ પર દોરા બાંધે છે. એકવાર તેમની ઇચ્છાઓ પૂર્ણ થાય છે, ત્યારે લોકો ઝાડમાંથી દોરા ખોલવા માટે ફરીથી મંદિરમાં આવે છે. દેવી માનસાને પ્રાર્થના માટે નારિયેળ, ફળો, માળા અને ધૂપદાં પણ ચઢાવવામાં આવે છે.


હરિદ્વારમાં સ્થિત આવા ત્રણ પીઠોમાંથી એક છે, અન્ય બે ચંડી દેવી મંદિર અને માયા દેવી મંદિર છે . આંતરિક મંદિરમાં બે દેવતાઓ છે, એક આઠ હાથો સાથે અને બીજો ત્રણ માથા અને પાંચ હાથો સાથે. 

તીર્થયાત્રીઓ મંદિર સુધી પહોંચવા માટે પગપાળા જાય છે. અથવા રોપ-વે સેવાનો ઉપયોગ કરો. "મનસા દેવી ઉદનખાટોલા" તરીકે ઓળખાતી રોપ-વે સેવાનો ઉપયોગ યાત્રાળુઓને નજીકમાં આવેલા ચંડી દેવી મંદિર સુધી લઈ જવા માટે પણ થાય છે . રોપ-વે યાત્રાળુઓને નીચલા સ્ટેશનથી સીધા માનસા દેવી મંદિર સુધી લઈ જાય છે. 

રોપ-વેની કુલ લંબાઈ 540 મીટર (1,770 ફૂટ) છે અને તે જે ઊંચાઈ ધરાવે છે તે 178 મીટર (584 ફૂટ) છે.પહાડ પર આવેલા મનસાદેવી મંદિર સુધી પહોંચવા માટે લગભગ દોઢ કિમી જેટલી સીડીઓ ચઢવી પડે છે. 

રોપ વે માંથી તથા મંદિર ના આંગણામાંથી સમગ્ર હરિદ્વારનો તથા ગંગામાતાનો સુંદર નયનરમ્ય નજારો માણવા જેવો છે.

મનસા દેવીનો મહિમા

માન્યતા મુજબ માતા મનસા દેવી ભકતોની તમામ મનોકામના પૂર્ણ કરે છે. મનસા એટલે ઇચ્છા ઇચ્છા, અપેક્ષા. તેઓ ભક્તોની મનસા પૂર્ણ કરનાર કરે છે. આથી તેમને મનસા દેવી કહેવામાં આવે છે. મનસા દેવી મંદિરમાં જે ભક્ત સાચા મનથી માનતા માને છે, તેની તમામ મનોકામના પૂર્ણ થાય છે. મનોકામના પૂર્તિ માટે અહીં ઝાડની ડાળી પર એક પવિત્ર દોરો બાંધવામાં આવે છે. મનોકામના પુરી થયા બાદ ભક્તો અહીં આવી આ ડોરો ખોલે છે અને મનસા દેવીના આશીર્વાદ લે છે.

ભગવાન શંકરની પુત્રી મનસા દેવી

હિંદુ ધર્મની માન્યતા મુજબ ભગવાન શંકરની 3 પુત્રી છે, જેમા એક મનસા દેવી છે. મનસા દેવીને માતા પાર્વતીની સોતેલી પુત્રી માનવામાં આવે છે. કારણ કે, માતા પાર્વતીએ તેમનો જન્મ આપ્યો નથી. પૌરાણિક કથા મુજબ માતા મનસાનો જન્મ એવા સમયે થયો જ્યારે ભગવાન શિવનું વીર્ય સર્પોની માતા કદ્રૂની મૂર્તિ પર પડ્યું હતું. આથી દેવી મનસાને ભગવાન શિવની માનસ પુત્રી કહેવાય છે. તો અમુક પૌરાણિક ગ્રંથોમાં એવો પણ ઉલ્લેખ છે કે મનસા દેવીનો જન્મ ઋષિ કશ્યપના મસ્તક માંથી થયો હતો અને તેમની માતા કદ્રૂ હતી.




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Sunday, 31 August 2025

सुदामा का बलिदान और कृष्ण की लीला

 जैसे ही द्वारकाधीश ने तीसरी मुट्ठी चावल उठा कर फाँक लगानी चाही, रुक्मिणी ने जल्दी से उनका हाथ पकड़ कर कहा, " क्या भाभी के लाये इन स्वादिष्ट चावलों के स्वाद का सारा सुख अकेले ही उठाएंगे स्वामी? हमें भी तो ये सुख उठाने का अवसर दीजिये।"

द्वारकधीश के अधरों पर एक अर्थपूर्ण स्मित उपस्थित हो गयी। उन्होंने चावल वापस उसी पोटली में डाले और उसे उठाकर अपनी पटरानी को दे दिया।

सुदामा के साथ बातें करते हुए कब कृष्ण उनके पाँव दबाने लगे ये सुदामा को पता ही नही चला। सुदामा सो चुके थे किंतु कृष्ण अपनी ही सोंचों में मगन उनके पाँव दबाते हुए बचपन की बातें करते चले जा रहे थे, कि तभी रुक्मिणी ने उनके कंधे पर हाथ रखा।

कृष्ण ने चौंक कर पहले उन्हे देखा और फिर सुदामा को, फिर उनका आशय समझ कर वहाँ से उठ कर अपने कक्ष में चले आये।


कृष्ण की ऐसी मगन अवस्था देखकर रुक्मिणी ने पूछा, "स्वामी आज आपका व्यवहार बहुत ही विचित्र प्रतीत हो रहा है। आप, जो इस संसार के बड़े से बड़े सम्राट के द्वारका आने पर उनसे तनिक भी प्रभावित नही होते हैं, वो अपने मित्र के आगमन की सूचना पर इतने भावविव्हल हो गए कि भोजन छोड़कर नंगे पाँव उन्हे लेने के लिए भागते चले गए।

आप, जिनको कोई भी दुख, कष्ट या चुनौती कभी रुला नही पाई, यहाँ तक कि जो गोकुल छोड़ते समय मैया यशोदा के अश्रु  देखकर भी नही रोये, वे अपने मित्र के जीर्ण शीर्ण, घावों से भरे पाँवों को देखकर इतने भावुक हो गए कि अपने अश्रुओं से ही उनके पाँवों को धो दिया।

कूटनीति, राजनीति और ज्ञान के शिखर पुरुष आप, अपने मित्र को देखकर इतने मगन हो गए कि बिना कुछ भी विचार किये उन्हे समस्त त्रिलोक की संपदा एवं समृद्धि देने जा रहे थे।"

कृष्ण ने अपनी उसी आमोदित अवस्था में कहा, "वह मेरे बालपन का मित्र है रुक्मिणी।"

"परंतु उन्होंने तो बचपन में आपसे छुपाकर वो चने भी खाये थे जो गुरुमाता ने उन्हे आपसे बाँटकर खाने को कहे थे? अब ऐसे मित्र के लिए इतनी भावुकता क्यों?", सत्यभामा ने भी अपनी जिज्ञासा रखी।

कृष्ण मुस्कुराये, " सुदामा ने तो वह कार्य किया है सत्यभामा, कि समस्त सृष्टि को उसका आभार मानना चाहिए। वो चने उसने इसलिए नहीं खाये थे कि उसे भूँख लगी थी बल्कि उसने इसलिए खाये थे क्योंकि वो नही चाहता था कि उसका मित्र कृष्ण दरिद्रता देखे। उसे ज्ञात था कि वे चने आश्रम में चोर छोड़कर गए थे, और उसे यह भी ज्ञात था कि उन चोरों ने वे चने  एक ब्राह्मणी के गृह से चुराए थे। उसे यह भी ज्ञात था कि उस ब्राह्मणी ने यह श्राप दिया था कि जो भी उन चनों को खायेगा, वह जीवन पर्यंत दरिद्र ही रहेगा। सुदामा ने वे चने इसलिए मुझसे छुपा कर खाये ताकि मैं सुखी रहूँ। वो मुझसे ईश्वर का कोई अंश समझता था, तो उसने वे चने इसलिए खाये क्योंकि उसे लगा कि यदि ईश्वर ही दरिद्र हो जायेगा तो संपूर्ण सृष्टि ही दरिद्र हो जायेगी। सुदामा ने संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए स्वय का दरिद्र होना स्वीकार किया।"

"इतना बड़ा त्याग!", रुक्मिणी के मुख से स्वतः ही निकला।

"मेरा मित्र ब्राह्मण है रुक्मिणी, और ब्राह्मण ज्ञानी और त्यागी ही होते हैं। उनमें जनकल्याण की भावना कूट कूट कर भरी होती है। इक्का दुक्का अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो ब्राह्मण ऐसे ही होते हैं।

अब तुम ही बताओ ऐसे मित्र के लिए ह्रदय में प्रेम नही तो फिर क्या उत्पन्न होगा प्रिये? गोकुल छोड़ते हुए मैं इसलिए नही रोया था क्योंकि यदि मैं रोता तो मेरी मैया तो प्राण ही छोड़ देती। परंतु मेरे मित्र के ऐसे पाँव देखकर, उनमें ऐसे घावों को देखकर मेरा ह्रदय भर आया रुक्मिणी। उसके पाँवों में ऐसे घाव और जीवन में उसकी ऐसी दशा मात्र इसलिए हुई क्योंकि वह अपने इस मित्र का भला चाहता था।

पता है रुक्मिणी, परिवार को छोड़कर किसी और ने कभी इस कृष्ण का इतना भला नही चाहा। लोग बाग तो मुझसे उनका भला करने की अपेक्षा रखते हैं। बस सुदामा जैसे मित्र ही होते हैं जो अपने मित्र के सुख के लिए स्वेच्छा से दरिद्रता एवं कष्ट का आवरण ओढ़ लेते हैं।

ऐसे मित्र दुर्लभ होते हैं और न जाने किन पुण्यों के फलस्वरूप मिलते हैं। अब ऐसे मित्र को यदि त्रिलोक की समस्त संपदा भी दे दी जाए तो भी कम होगा।", कृष्ण अपने भावुकता से भर्राये हुए स्वर में बोले।

इधर कक्ष में समस्त रानियों के नेत्र सजल थे और उधर कक्ष के बाहर खड़े सुदामा के नेत्रों से गंगा यमुना बह रही थीं।


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