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Saturday, 23 August 2025

मनुष्य के बार बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?

 एक बार द्वारकानाथ श्रीकृष्ण अपने महल में दातुन कर रहे थे। रुक्मिणी जी स्वयं अपने हाथों में जल लिए उनकी सेवा में खड़ी थीं। अचानक द्वारकानाथ हंसने लगे। रुक्मिणी जी ने सोचा कि शायद मेरी सेवा में कोई गलती हो गई है; इसलिए द्वारकानाथ हंस रहे हैं।

रुक्मिणी जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, ‘प्रभु! आप दातुन करते हुए अचानक इस तरह हंस क्यों पड़े, क्या मुझसे कोई गलती हो गई? कृपया, आप मुझे अपने हंसने का कारण बताएं।’

श्रीकृष्ण बोले, ‘नहीं, प्रिये! आपसे सेवा में त्रुटि होना कैसे संभव है? आप ऐसा न सोचें, बात कुछ और है।’

रुक्मिणी जी ने कहा, ‘आप अपने हंसने का रहस्य मुझे बता दें तो मेरे मन को शान्ति मिल जाएगी; अन्यथा मेरे मन में बेचैनी बनी रहेगी।’


तब श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए रुक्मिणी जी से कहा, ‘देखो, वह सामने एक चींटा चींटी के पीछे कितनी तेजी से दौड़ा चला जा रहा है। वह अपनी पूरी ताकत लगा कर चींटी का पींछा कर उसे पा लेना चाहता है। उसे देख कर मुझे अपनी मायाशक्ति की प्रबलता का विचार करके हंसी आ रही है।’

रुक्मिणी जी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, ‘वह कैसे प्रभु? इस चींटी के पीछे चींटे के दौड़ने पर आपको अपनी मायाशक्ति की प्रबलता कैसे दीख गई?’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘मैं इस चींटे को चौदह बार इंद्र बना चुका हूँ। चौदह बार देवराज के पद का भोग करने पर भी इसकी भोगलिप्सा समाप्त नहीं हुई है। यह देख कर मुझे हंसी आ गई।’

इंद्र की पदवी भी भोग योनि है। मनुष्य अपने उत्कृष्ट कर्मों से इंद्रत्व को प्राप्त कर सकता है। सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला व्यक्ति इंद्र पद प्राप्त कर लेता है। लेकिन जब उनके भोग पूरे हो जाते हैं तो उसे पुन: पृथ्वी पर आकर जन्म ग्रहण करना पड़ता है।

प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म मरण के बंधन में पड़ता है। वासना ही पुनर्जन्म का कारण है। जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति, ऊंच नीच योनियों में जन्म होता है। अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए। वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है।

बुझै न काम अगि डालते जाइये, वह और भी धधकेगी, यही दशा काम की है। उसे बुझाना हो तो संयम रूपी शीतल जल डालना होगा।

संसार का मोह छोड़ना बहुत कठिन है। वासनाएं बढ़ती हैं तो भोग बढ़ते हैं, इससे संसार कटु हो जाता है। वासनाएं जब तक क्षीण न हों तब तक मुक्ति नहीं मिलती है। पूर्वजन्म का शरीर तो चला गया परन्तु पूर्वजन्म का मन नहीं गया।

नास्ति तृष्णासमं दु:खं नास्ति त्यागसमं सुखम्।

सर्वांन् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।

तृष्णा के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। समस्त कामनाओं, मान, बड़ाई, स्वाद, शौकीनी, सुख भोग, आलस्य आदि का परित्याग करके केवल भगवान की शरण लेने से ही मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है।

नहीं है भोग की वांछा न दिल में लालसा धन की।

प्यास दरसन की भारी है सफल कर आस को मेरी।।


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